कानून और उनका दुरूपयोग

पिछले पांच दिनों से मीडिया में केवल एक ही बहस चल रही है, उस बहस के ईर्द गिर्द ही देश के सभी चैनल और अखबार लोगों का मंतव्य प्रकाशित और प्रसारित कर रहें हैं। ये कोई पहली घटना नहीं है, और न ही किसी को फांसी पर लटकाने से इस सामाजिक अपराध का अन्त होगा। जो हुआ है, वह बहुत बुरा हुआ है। लेकिन इसके पहले भी इससे कहीं अधिक जघन्य अपराध विकृत मानसिकता वाले लोगों के द्वारा किये गये है। नैना साहानी को क्या हम भूल गये जिसके मांस को तंदूर में भूना गया था। इस तरह के कितने ही मामले हैं, इन पर शोर मचान की अपेक्षा देश को गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। बलात्कार से बड़ा अपराध दूसरा कुछ नहीं हो सकता है, उसके लिये जितने भी कड़े कानून बनाये जायें कम हैं, लेकिन उनका अनुपालन केवल पुलिस के बल पर और इस सामाजिक बुराई का निराकरण केवल प्रशासनिक अधिकारियों से होगा ऐसा सोचना भी गलत है। स्त्री पुरूष की समानता के अधिकार इन संदर्भों से जुड़े हुये हैं। हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी। अब ये भी देखना होगा कि इन कड़े कानूनों का उपयोग कहीं गलत तो नहीं हो रहा है। मेरी जानकारी में महिला और दलित उत्पीड़न के लिये बने कानूनों का जितना दुरूपयोग हुआ है और हो रहा है, क्य कोई नये कानून बनने से उसके दुरूपयोग का प्रभाव नहीं पड़ेगा । आज किसी भले आदमी को परेशान करना हो तो उस पर हरिजन एक्ट के तहत उसके खिलाफ किसी दलित से एक एफ०आई०आर० करवा दो वह विचारा भागा–भागा घूमेगा। इस कानून को बने कई साल हुये लेकिन दलित उत्पीड़न पहले से कहीं अधिक हो रहा है। दलित उत्पीड़न भी उतना नहीं हो रहा है जितना इस अधिनियम को आधार बनाकर भले आदमियों को परेशान किया जा रहा है। इसी तरह आज किसी भी चरित्रवान, भले इंसान को यदि अपमानित, लोछित और जेल की हवा खिलानी हो तो स्त्री उत्पीड़न उसके लिये एक साधारण उपाय बन गया है। यह सही है कि जब तक न्यायालय फैसला नहीं देता किसी भी आरोपी को अपराधी नहीं कहा जा सकता लेकिन मीडिया अपना टी०आर०पी० बढ़ाने के लिये उन झूठी घटनाओं को कल्पित (Favricated) घटनाओं को मिर्चमसाला लगाकर इतना रंगीन और जायकेदार बना देता है। मीडिया के सम्पर्क में आने वाला हर आदमी न केवल उस झूठी घटना को सच समझता है, बल्कि उस व्यक्ति के प्रति उसकी धारणा इस सीमा तक बदल जाती है कि समाज में रहते हुये भी वह व्यक्ति असामाजिक बन जाता है। न्यायालय जब तक उस पर अपना फैसला दे और उस मामले की सच्चाई सबके सामने लाये तब तक हर अवसर पर मीडिया उस व्यक्ति को अभियुक्त बनाकर पेश करती रहेगी। न्यायालय के निर्णय में यदि लम्बा समय लगता है, तो वह व्यक्ति उस अवधि तक समाज में सिर ऊँचा कर के नहीं चल सकता। इसलिये मेरा मानना है, कि ऐसे संवेदनशील विषय को पुलिस प्रशासन के हवाले करने की अपेक्षा महिलाओं और दलितों की ही जांच ऐजेंसी बनाई जाये और उस जांच की समीक्षा किसी सक्षम न्यायालय द्वारा हो, तो सजा भी सही अपराधी को मिलेगी और बदले की भावना से इन कानूनों का दुरूपयोग करने वालों को करारा जबाव भी।