निर्णयः संत या सत्ता

गंगा के अविरल प्रवाह को लेकर अखाड़ा परिषद की चिन्ता स्वभाविक है, क्योंकि इन अखाड़ों का अस्तित्व जिन कुम्भों पर निर्भर करता है, वह हरिद्वार और प्रयाग के ऐसे कुम्भ हैं, जो पूरी तरह गंगा के अग्रिम प्रवाह पर आश्रित हैं। देश के ऐसे कितने धर्मिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और साहित्यक संगठन है, जिनका उत्स गंगा का अविरल प्रवाह ही है। हजारों लाखों गंगातटवासियों का आर्थिक आश्रय भी गंगा का यह अविरल प्रवाह ही है। ब्लैकहोल से लेकर पर्यावरण की ऊंची बातें करने वाले तमाम लोगों के लिए भी गंगा की यह स्थिति पर्यावरणीय दृष्टि से एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है। गंगा में उतना जल भी नहीं होगा जितने आंसू इसी गंगा की दुर्दशा को लेकर बहाये गये है। दुनिया के तमाम अखबार गंगा की इस दयनीय दशा को लेकर सुर्खियां बनाते दिखाई देते है। आये दिन किसी न किसी संगठन के द्वारा धरना प्रदर्शन अनशन और आमरण अनशन तक आयोजित होते है। यह आयोजन अखबारों की हेड लाईन और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज तो बन जाते है, लेकिन गंगा की वर्तामान दुर्दशा के लिए जिम्मेदार लोगों की सेहत पर कोई असर पड़ता दिखाई नहीं देता। उत्तराखण्ड में गंगा पर बनने वाले बांधों और जल विधुत परियोजनाओं में कहीं भी कमी आती दिखाई नहीं पड़ती । भाजपा के सूर्यप्रताप शाही भी गंगा के इस अविरल प्रवाह की चिन्ता को लेकर काशी पहुंच गये, लेकिन उन्हीं की पार्टी के उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री श्री निशंक बांध दर बांध नई परियोजनाओं की सौगात जब सरकारी और गैर सरकारी तमाम कम्पनियों को बांट रहे थे, तब शाही जी कहां थेॽ मुझे पता नहीं, उस समय की एक बैठक, जिसमें श्री सुदर लाल बहुगुणा भी उपस्थित थे मैने इन परियोजनाओं की स्वीकृति का जब विरोध किया था, तब निशंक सरकार के एक बड़े मंत्री ने बड़े गर्व से कहा था, कि जब मैं सत्ता से बाहर आपके साथ था यही कुछ मैं भी कहता था जो आप कह रहे है। लेकिन मैं सत्ता में हूँ, इन बांधों का निर्माण सत्ता में रहने के लिए जरूरी है। उन मंत्री की बात मे मुझे उस समय तो नहीं लेकिन अब दम दिखाई देता है, क्योंकि मनमोहन से लेकर जयराम रमेश तक सभी गंगा के अविरल प्रवाह को लेकर समय–समय पर चिन्ता तो व्यक्त करते हैं और उसको सुनिश्चत कराने के लिए गंगा के राष्ट्रीय नदी तथा प्रवाह के लिए प्राधिकरण का भी गठन करते हैं। लेकिन परिणाम ढाक के वही तीन पात, देश को गंगा से ज्यादा उर्जा की जरूरत है। साधू सन्तों को मुक्ति के लिए गंगा चाहिए, और मनमोहन को उर्जा के लिए बांध। सत्ता और संत के बीच का यह द्वन्द अनादि है, राजर्षि भगीरथ र्स्वग से गंगा को धरती पर लाने के लिए तप करते हैं और सहस्त्रबाहु अपने सत्ता के बल से उसको रोकने का प्रयास। हम भगीरथ के साथ खड़ा होना चाहते है या सहस्त्रबाहु के, यह हमें तय करना है। क्योंकि इस समय कोई परशुराम नहीं है जो अपने कुठार से गंगा के प्रवाह को रोकने वाली भुजाओं को काट कर फेंक दे।