शब्द ब्रह्म है

अभिव्यक्ति की स्वाधीनता व्यक्ति को जिम्मेवार बनाती है क्योंकि तमाम जीवों में अपनी बात कहने के लिए शब्दों की शक्ति केवल मनुष्य के पास है, शब्द की इस अमोघ शक्ति का प्रयोग केवल और केवल मनुष्य ही कर सकता है। दुनिया के तमाम प्राणियों यहां तक की देवताओं के पास भी शब्द की यह शक्ति नहीं है, वे अपनी बात कहने के लिए ध्वनि और संकेत मुद्रा का उपयोग करते है। लेकिन आदमी, शब्द का उपयोग न केवल बोलने में अपितु लिखने पढने और संचार संदेश के माध्यम से सुदूर दुनिया में किसी कोने तक पहुँचा सकता है। वह रहे न रहे लेकिन शब्द ब्रहम् है, इसलिये मरने के बाद भी व्यक्ति की बात उसके शब्दों में जीवित रहती है। दुनिया के सभी शास्त्र, साहित्य, इतिहास, पुराण और ग्रन्थ इसी शब्द सम्पदा की देन है। लेकिन आदमी जब उसका प्रयोग किसी के प्रति अपने द्वेश इर्ष्या, कुण्ठा अथवा क्रोध के लिये इस्तेमाल करता है तो वह शब्द की इस ईश्वरीय शक्ति का दुरूपयोग ही करता है। ʺ ऐसी बानी बोलिये मन का आपा खोय, औरन को शीतल करै आपुहू शीतल होय‘‘

संचार जगत ने आज हमें ऐसे अनेक अवसर दिये हैं जिसके द्वारा हम अपने को व्यक्त कर सकते है जब शब्द सृजन की सीढियां चढता है और सत्य के शिव को सुंदरता से प्रस्तुत करता है तब वह साहित्य, मंत्र और पूज्य पुराण बन जाता है। तुलसी ने रामचरितमानस लिखते समय कभी नहीं सोचा था कि उनका यह सृजन आगे चलकर केवल साहित्य नहीं अपितु पूज्य पुराण बन जायेगा। मीरा और कबीर, जायसी और रहीम अपने शब्द की शालीनता के कारण साहित्यकार की कोटि से भी ऊपर उठकर संत की श्रेणी में आज देखे जा रहे है, तो यह उनके शब्द की पूंजी का सदुपयोग ही है। हमारे मन में न जाने कितने लोगों के प्रति न जाने क्या कुछ होता है, लेकिन हम उससे अपने शब्द साधना को यदि कलुषित करेंगें तो शयद ही वाणी (सरस्वती) हमें छमा करे। केवल घटनाओं के हवाले अपने मन की घृणा यदि हम किसी अभिव्यक्ति के माध्यम को सौंपते है, तो वह माध्यम निश्चित ही उसे आदर नही दिला सकेगा। हर घर से नाली निकलती है लेकिन वह घर की पहचान नहीं होती इसलिए अपने मन का कचरा जब शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्ति के किसी मंच पर लाने की कोई कोशिश करता है तो वह कचरा ही उसकी पहचान बन जाता है।